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कहानी

बुतों का देश

नरेंद्र प्रताप सिंह


वह एक सुहानी सुबह थी, ठंड ने अभी पूरी तरह पाँव नहीं पसारे थे। धुंध की हल्की चादर को हटा सूरज धीरे धीरे ऊपर आ रहा था। किरनों की गुनगुनी छुवन बदन पर स्नेहिल स्पर्श सी पड़ रही थी। आँखें मलते हुए सूरज ने नीचे धरती की ओर देखा, जहाँ लोगों का बड़ा सा सैलाब लहरा रहा था।

वह एक लोकतांत्रिक देश था। जैसा की हर लोकतांत्रिक देश में बीस तरह की दिक्कतें पेश आतीं हैं, वैसा ही कुछ वहाँ भी था। वास्तव में जब भिन्न भिन्न विचार वाले लोग पूरे जोश में अपनी बातें रखने लगते हैं, तब उनकी बातें कम, शोर ही अधिक सुनाई देता है। शायद यही उस जनता के होने का अहसास भी है, जिसे लोकतंत्र की रीढ़ कहा जाता है और प्रायः जिसे हाशिये पर ही रखा जाता है।

उन दिनों जनता चाय की दुकानों, चौराहों, चौपालों, पर अपनी तरह से सरकार के बारे में अपनी राय रख रही थी, उसमे व्यवस्था के प्रति आक्रोश था, निराशा का भाव था, एक अजब सी बेअदबी फिजा में थी, जिससे हाकिम हुक्काम बेचैनी से भर उठे थे, जिसने उनके माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी थी। व्यवस्था तो वैसे अपने आप चलने वाली चीज होती है और उसे चलाने वाले वही पुराने तरीके से ट्रेंड बड़े ओहदेदार बाबू किस्म के लोग ही होते हैं, जिनके कंधों पर वर्षों से उसे चलाने की जिम्मेदारी रही है। जनता की भागीदारी बस लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक संतुष्टि प्रदान करने वाला संबोधन भर है, वास्तव में वे ट्रेंड लोग ही भिन्न भिन्न नियम कायदों के सहारे उसे चलाते रहते हैं। इस चलने चलाने में उन्होंने अपने उपकृत करने वालों के साथ साथ अपने लिए भी वैसी ही, कुछ कमतर राजसी सुविधाएँ प्राप्त कर ली होती हैं।

हर पाँच वर्ष में नेता, मंत्री, प्रधान सब बदल जाते हैं, या जनता जिन्हें सत्ताच्युत कर देती है लेकिन ये ओहदेदार लोग वहीं के वहीं जमे रहते हैं। आप कुछ भी सोचें वे व्यवस्था को अपनी ही तरह से चलाते रहते हैं। वे हुक्मरानों को यह विश्वास दिलाने में सफल हो ही जाते हैं कि जनता से किए वादों को एक सीमा तक ही पूरा करना व्यवहारिक होता है। यह भी कि कैसे जनता को सत्ता का मुखापेछी बनाए रखा जा सकता है। सो यही ओहदेदार यह तय करते हैं या करवाते हैं कि जनता के लिए क्या और कितना किया जाना है।

बुद्धिजीवी, पत्रकार जो टीवी चैनलों पर लंबी चौड़ी बहसों में व्यस्त दिखते हैं या पत्र पत्रिकाओं में बड़े बड़े लेख लिखते रहते है, वे वास्तव में अपने ज्ञान की जुगाली भर कर रहे होते हैं। उन्हें भी यह पता होता है कि उनकी इन बातों से कुछ बदलने वाला नहीं, फिर भी चूँकि वे लोकतांत्रिक देश के बाशिंदे होते हैं, इसलिए उन्हें अपने विचार रखने की पूरी छूट होती है और वे उसका उपयोग करते हैं। सरकार भी उनको इस बात में सहयोग करती है क्योंकि इससे यह लगता रहता है कि लोकतंत्र जिंदा है और सरकार में जनता की भागीदारी बनी हुई है। वैसे भी लोकतंत्र में सरकार कुछ करे या न करे पर जनता को यह दिखता रहना चाहिए कि सरकार उनके लिए कितना चिंतित है और जनता के बारे में कितना सोचती रहती है। हुक्मरान, आला अधिकारी, नेता मंत्री सब यह जानते हैं कि लोकतंत्र में जनता एक मोहरा भर है, जिसे हर पार्टी अपनी अपनी तरह इस्तेमाल करती है, जिससे वह सत्ता में बनी रह सके। जनता के लिए उनके आँसू, उनके वादे, सब झूठे होते हैं, लेकिन वे इसीलिए हुक्मरान हैं क्योंकि वे हर झूठ के सच होने का भरोसा जनता को दिला सकते हैं, जनता को नारों, वादों से बहला सकते हैं।

लेकिन जाने क्या बात थी उस बार आवाम की बेचैनी में, उन बेबस आँखों में, कि देश के प्रधान, हुक्मरान, आला अधिकारी, नेता सब चिंतित हो उठे थे। शाम की महफिलों में, बंद कमरों की मीटिंगों में वे सोचते विचारते, जनता की आँखों में ये विद्रोह क्यों है? जरूर देश पर कोई बड़ा संकट आने वाला था, वैसे देश से अधिक उनकी चिंता अपने लिए थी।

प्रधान के निर्देश पर देश के शोध संस्थान, बुद्धिजीवी, विचारक इस खोज में जुटे हुए थे कि जनता में आक्रोश, बेचैनी का कारण था क्या। कैसे उसे दूर किया जा सकता था। बड़े बड़े बुद्धिजीवी शाम की महफिलों में महँगी मदिरा, भुने हुए मुर्गों के साथ इसी चिंता में सर खपाए जा रहे थे कि आखिर जनता में आक्रोश था क्यों। जनता की नब्ज पहचानने के लिए विभिन्न एजेंसियाँ सर्वेक्षण पर सर्वेक्षण करने में व्यस्त थीं, पर जनता थी कि चुपचाप सब देखती थी, कहती कुछ न थी, हाँ उसकी आँखों में लाल डोरे जरूर उभर उभर आते थे।

आखिर एक बुद्धिजीवी समूह ने बड़े साहब को समस्या से निजात पाने की तरकीब सुझाई। बड़े साहब को तरकीब बहुत पसंद आई। हुक्मरान, मंत्रियों की रोज रोज की डाँट फटकार से वे सब परेशान थे, उससे निजात पाने का यह अच्छा मौका था। इससे यह फायदा था कि यदि तरकीब सफल हो गई तो हुक्मरानों के गुस्से से निजात मिल जाएगी, और उसका श्रेय उन्हें भी मिल ही जाता या वो ले ही लेते, और यदि तरकीब असफल हो गई तो उसका सारा दोष वे उन लोगों के सर पे डाल सकते थे। इस सबको देखते हुए यह तय किया गया कि शीघ्र ही उनको मंत्री समूह और प्रधान से मिलवा दिया जाय।

गोल मेज के एक ओर प्रधान अपने सहयोगियों के साथ बैठे थे। मेज की दूसरी तरफ बुद्धिजीवी समूह बैठा था, जो अपना शोध उन लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने वाला था। सुदर्शन जी, जो उस समूह के मुख्या वक्ता थे खड़े हो चुके थे। उन्होंने अपना परिचय देने के बाद कहना शुरू किया - आदरणीय प्रधान जी, मंत्रीगण एवं विशिष्ठ सज्जनों - अब पुराने तरीकों से जनता के आक्रोश, विचारों को रोकना संभव नहीं है। इससे उनका आक्रोश, विरोध और तेज होने की संभावना अधिक होती है। उन बेचैन आँखों को अब जेलों में बंद करना बहुत मुश्किल काम है। सूचना संचार तंत्र अब एक ऐसी शक्ति है जिससे छुपाकर कुछ भी रखना अब नामुमकिन सा है। वह आपके घर, आफिस, यहाँ तक बेडरूम तक में घुस आया है। आवश्यक है कि अब दूसरे तरीके अपनाए जाएँ।

मसलन सरकार के समर्थक गुट, सरकार के नुमाइंदे, सरकारी संस्थान या मीडिया ग्रुप के माध्यम से गोष्ठी, बहस, वार्ता द्वारा जनता तक ऐसे विचार पहुँचाए जिससे जनता अपने आक्रोश को, प्रतिरोध को भूल कर दूसरी बातों बातों में व्यस्त हो सके। उनकी सोच को परिवर्तित करना होगा। अधिक से अधिक युवा लोगों को इन कार्यक्रमों से जोड़ना होगा। इसके लिए अपने पार्टी के लोगों, गैर राजनैतिक लोगों को जोड़ना होगा। हमें व्यक्ति की चेतना को इस तरह प्रभावित करना होगा, परिवर्तित करना या कुंद करना होगा, जिसे एक तौर पर ट्रांसफॉर्मेशन कहना उचित होगा, कि वह व्यक्ति व्यवस्था की हाँ में हाँ मिलाने वाली एक शक्ल भर हो। उसे अपने होने न होने का उतना ही एहसास हो जितना उसे बताया जाय। वह एक ऐसा व्यक्ति हो जो व्यवस्था की हाँ, में सर हिलाता रहे, या चुपचाप एक बुत सरीखा खडा रहे।

उस देश में जनता को ये हक था कि वह हर पाँच वर्ष में अपने नुमाइंदे चुनती थी, जिन्हें यह तय करना होता था जनता का भला किसमें था - सच भी था जनता को क्या पता कि उसका भला किसमें है, उसे क्या पता उसे क्या चाहिए, उसे क्या पता उसकी खुशी किसमें है - यह सब तो उनके नुमाइंदों को पता था। उन्हें ही यह तय करना होता है कि जनता को कितना, क्या और कब दिया जाना है। जनता तो व्यवस्था में बस गिने हुए सिर भर होती है, जिसे हर पाँच वर्ष में एक बार अपनी आशाएँ, आकांक्षाएँ उन्हें सौंप देनी होती हैं। तो श्रीमान यह जरूरी है कि हम जनता के विचारों, उनकी भावनाओं को इस प्रकार प्रभावित करें कि वे आपकी तरह ही सोचने के लिए विवश हों। ऐसे ही समर्थित लोगों के भरोसे आप दुनिया में श्रेष्ठ बन सकते हैं।

विचार सबको पसंद आया। सबने एक सुर से उसकी प्रसंसा की। आदेश जारी किए गए कि यथाशीघ्र कार्य योजना लेकर उसके लिए आवश्यक धन अविलंब उपलब्ध करा दिया जाय। उधर यह आदेश निर्गत हुवा, इधर कई समूह, बहुत सी संस्थाएँ उसे पूरा करने में जुट गईं। आदेश आदेश होता है, उसके निकलते ही पूरी जमात उसे पूरा करने दौड़ पड़ी। मीडिया पर रोज रोज पत्रकार, बुद्धिजीवी, विशेषज्ञ बहस में जूझने लगे, अखबार, फेसबुक पर बड़े बड़े चिंतक अपने विचार प्रकट करने लगे। नेता अपने अपने चुनाव क्षेत्रों में सरकार के कार्यों का गुणगान करने में जुट गए।

हाकिम हुक्मरान के दिलों में सुकून बैठता गया कि समस्या बस चंद दिनों की है। शाम की महफिलें फिर से जवान होने लगीं थीं - सबने सोचा अरे यह तो कोई समस्या ही नहीं थी, वे बेकार इतने चिंतित हो उठे थे, लेकिन शामत तो उनकी थी जिन्हें जनता को यह विश्वास दिलाना था कि सरकार उनके लिए दिन रात मर खप रही थी, कि बस अब समस्याएँ खत्म हो ही रही हैं, कि वे अब सुखी हो रहे हैं - वे चिंता में गल रहे थे। तमाम हाकिम, हुक्काम, बुद्धिजीवी, एन जी ओ, जो सरकार के साथ थे इस ओर जुटे थे कि जनता की स्वतंत्र चेतना को कैसे कुंद किया जाय, इस ओर जुट गए थे कि लोगों की आँखों से विद्रोह की लालिमा कैसे हट जाय, उनमे सहमति के स्वर उभरे, इस ओर जुट गए कि हवा में सरकार के जयकारों के स्वर भर उठें।

उस लोकतांत्रिक देश में एक नई बयार बहने लगी थी। जिधर देखो ऊर्जा से भरे लोग दिखते, नई नई योजनाओं के उद्घाटन, नए नए नारे हवा में तैरते जिससे जनता भ्रमित थी, पर जो हो रहा था उसमे खोई हुई थी, लगता था जैसे पूरा देश चलायमान हो गया हो, पेड़ नदी आकाश सब चलायमान थे, सब में एक गति थी, बस एक उद्घोष उठता था सब ओर - नया देश बनाना है, नया परिवेश बनाना है, न कोई गरीब होगा, न कोई वंचित होगा, न कोई दुखी होगा न पीड़ित होगा। हर ओर विकास होगा, हर आँख के सपने पूरे होंगे - तो यूँ बदल गई थी पूरे देश की फिजा, भले वह एक सपना भर था पर लोगों की आँखों में पल तो रहा था। देश के हाकिमों ने सोचा कि यही सही समय था जब सरकार को बताया जाय कि पूरी जनता सरकार की जय जयकार कर रही है, ये यूँ भी जरूरी था क्योंकि प्रधान की खुशी के साथ उनका भी हित जुड़ा था।

वह वहीं सुहानी सुबह थी, जहाँ अभी तक ठंड ने पूरी तरह अपने पाँव नहीं पसारे थे, कोहरे की झीनी चादर को हटाकर सूरज धीरे ऊपर उठ रहा था। सूरज ने आँख मलते हुए नीचे देखा - वहाँ हजारों लोग हाथ हिलाते हुए थे, उनके वहाँ होने से एक विशेष उल्लास वातावरण में उभर रहा था। चाक-चौबंद व्यवस्था के बीच एक बड़ा सा सजा मंच था - जिस पर देश का प्रधान प्रफुल्लित मुद्रा में मंचासीन था, उसके साथ ही उसके मंत्री, सहयोगी भी बैठे हुए थे। सामने देश की जनता थी, जिसे इंतजार था अपने प्रधान का, जो उनके दुख, परेशानियों को दूर करने वाला था। उस लहराते हुजूम को देखकर देश का प्रधान बहुत प्रसन्न था।

वह उठा, माइक के सामने आ उसने अभिवादन में हाथ जोड़े, भीड़ में कोलाहल बढ़ गया था। लोग हाथ उठा उठाकर प्रधान जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे, उनका उत्साह देखते ही बनता था। प्रधान ने हाथ हिलाकार बार बार अभिवादन किया, फिर बोला - मित्रों, आज आपका उत्साह देख कर मुझे लगता है मेरी दिन रात की तपस्या सफल हो गई। आप के दुख आपकी हर परेशानी दूर करने की जिम्मेदारी मैं अपने सिर लेता हूँ। मै आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं इस राष्ट्र को अमेरिका यूरोप से भी श्रेष्ठ बनाऊँगा। भाइयों और बहनों आज आपने मुझे जो अपना आशीर्वाद दिया है, वही हमारी शक्ति है। जय देश, जय देश... जरा जोर से बोलिए मेरे साथ, इतनी तेज की ये गूँज सीमा के पार तक पहुँच जाय, लोग समझ जाएँ कि ये देश जाग उठा है। जय देश... भीड़ से भी हजारों हजार कंठों से निकला जय देश ...जय देश, दशों दिशाओं में गूँजा - जय देश ...जय देश, हवाओं में उद्घोष भर उठा - जय देश... जय... देश।

नेता को जनता को विश्वास दिलाना होता है कि वह उसके लिए साँस लेता है, उनके लिए जीता है। जब वो कहे कि अब तुम्हारी परेशानी दूर हो रही है, तब जनता भी मान ले हाँ हो रही है, वो जब कहे तुम सब अब सुखी हो, तब जनता को भी विश्वास हो जाय हाँ अब वो सुखी हो गई। वो जनता के मूड को पढ़ ले, भले जनता दुख में हो, भले भूखी हो, लेकिन वो जब उन्हें विश्वास दिलाए तो वह मान ले, ऐसा ही था वहाँ। हाकिम हुक्मरान ने जो प्रयोग किया था वह सफल रहा था। देश के प्रधान के सामने हजारों लोग जयघोष कर रहे थे, जिन्हें किसी निर्देश के अनुरूप बोलना था, जिन्हें ट्रेंड तरीके से हाथ उठाना था, वे वही कर रहे थे जैसा उनसे कहा गया था, वो पूरी भीड़ बुत सरीखी थी। वे हाथ हवा में हिला रहे थे, वे नारे लगा रहे थे, उनके सहयोगी खुश थे, उनके कार्यकर्ता खुश थे, वे बुद्धिजीवी समूह, वो एन जी ओ खुश थे - जिन्हें उस जनता को बुत सरीखा व्यवहार कराने की जिम्मेदारी दी गई थी, क्योंकि प्रधान खुश था, और उसकी खुशी से उनके हानि लाभ जुड़े थे।

किसी को बुत सरीखा कहना उचित है या नहीं, मुझे संदेह है कि कहीं अनजाने में मैं उनका अपमान तो नहीं कर रहा। यदि ऐसा किसी को लगा हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। बुत कहने से मेरा आशय सिर्फ यह इंगित करना था कि उस जनता को स्वयं विचार करके देखना चाहिए की क्या ठीक है या क्या बुरा है। उसे अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए, न की अंध भक्ति प्रदर्शित करनी चाहिए। हर व्यक्ति में स्वतंत्र रहने की इच्छा होती है, वह घूमने फिरने, बोलने की आजादी चाहता है। व्यक्ति आधा पेट खाकर खुश रह सकता है, लेकिन उसे अपना जीवन अपनी तरह जीने का हक ही अच्छा लगता है। वह एक लोकतांत्रिक देश था तो वैसे भी यह जनता का हक था भी, पर उस देश में उन्हें इतना परिवर्तित कर दिया गया था कि वे उनके द्वारा बताई गई बातों के अतिरिक्त कुछ और सोच ही नहीं पाते थे। या यूँ कहें तो हुजूर आका वाली मुद्रा में आ गए थे। उनकी चेतना बस सर हिलाने भर के लिए रह गई थी। उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं था की उनकी सोच विचार की शक्ति ही बदली जा चुकी है। और ताज्जुब ये था कि वे इसी में खुश भी दिखते थे। देश अपनी गति से चल रहा था, जहाँ गर्व के उद्घोष थे, हाकिम हुक्मरान की हँसी-खिलखिलाहट थी।

पर समय को भाँपना किसके बस की बात थी, कब वह वक्री हो जाएगा पता चलता है क्या। उस देश में जहाँ जनता प्रसन्न सी दिखती थी, जहाँ किसी भी आँख में असंतोष की झलक नहीं होती थी, जहाँ हाकिम हुक्काम शाम की महफिलों में आनंद में खोए रहते थे, जहाँ हर ओर फिजा खुशगवार रहती थी, वहाँ न जाने कैसे असंतोष की गंध फैलने लगी थी।

पहली बार ऐसा हुआ कि बुत सरीखे एक व्यक्ति की आँखों में लाल लाल डोरे दिखे, मुट्ठियों में कसाव था, साँसों में उबाल था। उसने हिकारत भर अपने दूसरे साथियों को देखा। जाने उसके देखने में क्या था, जाने उसने कैसे देखा था - वे भीतर तक सिहर गए। वह तेज तेज बोल रहा था - तुम सब मुर्दों की तरह जिंदा हो। जानवरों को भी अपनी तरह छुट्टा घूमने फिरने की आजादी होती है, पर तुम्हें तो अपने तई कोई आजादी नहीं है? तुम्हारी सोच पर, तुम्हारी चेतना पर उनका कब्जा है, जो तुम्हारे नियंता हैं। तुम्हें सिर्फ गर्व करने की आजादी है, तुम्हें सिर्फ महान दिखने की आजादी है - वो भी जब तुम्हारे नियंता चाहें। वे सब उसकी बातों को सुन रहे थे, अचानक उनकी साँसें भी गरम होने लगी, उनकी साँसों ने हवा में गर्मी भर दी। हूँ...हूँ... की हुंकार बार बार उठती। खबर हाकिमों तक पहुँची, उन्होंने स्वयं जाकर भी देखा - सच में उनकी भंगिमा ने उन्हें भी चिंता में डाल दिया था। उनमे बेचैनी भर उठी, बात नेताओं, मंत्रियों से होते हुए प्रधान तक पहुँच गई थी।

तुरंत आपात बैठक बुलाई गई। बैठक में प्रधान का मूड बहुत खराब था - वो चीखता - हुआ कैसे यह सब, आप सब क्या कर रहे थे? उसकी आवाज तड़ तड हवा में उड़ती है। 'तुम सबको इतनी देर से क्यों पता चलता है, कौन जिम्मेदार है इसके लिए ...धड़ धड़... आवाज कानों में घुसती है। उसके गुस्से का ताप हाकिमों, बड़े ओहदेदारों के चेहरे पर चिपकता जा रहा था, सर झुकाए वे नीचे जमीन में देखते खड़े हैं। प्रधान फिर पूछता है - यूँ खड़े रहने से काम नहीं चलेगा। कहाँ थी आपकी विजिलेंस? क्यों नहीं आपको पता चला? ...उसकी आवाज चटाक चटाक हाल की दीवारों से टकरा टकरा कर वापस लौटती है। हाकिम, मंत्री, नेता सबके माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा उठी हैं। बार बार दीवारों से टकराकर शब्द कानों में भरते हैं - क्यों क्यों... दिमाग में गूँज पैठती है ...क्यों ...क्यों...क्यों। वह कहता है - 'अभी तय करिए, क्या करना है? ...क्या बुत सरीखे लोग हमें नियंत्रित करेंगे? ...ऐसे चलेगी सरकार? ...जाइए देखिए कैसे ठीक होगा सब। ...मुझे सब दुरुस्त चाहिए। जा...इए ...जाइ...ये...ये...।

हाकिम हुक्मरान तेजी से हाल से निकल रहे हैं, कार के फाटक फटाफट खुल रहे हैं, बंद हो रहे हैं। जय हिंद सर, ...सर, हवा में एक अजीब सी थर्राहट है, भय है सब ओर... पुलिस आला हाकिमों की गाड़ियाँ दौड़ पड़ी हैं - जय हिंद... जय हिंद... सिपाही दरोगा खटा-खट सैलूट ठोकते थे, वे भी उसी ओर दौड़ रहे थे - जिधर बुत सरीखे लोग हुंकार भरते चल रहे थे।

वे सामने थे उनके ...हवा में हजारों मुट्ठियाँ लहरा रहीं थीं, रह रह कर विद्रोह का स्वर उभरता था - 'हवा हमारी ...हवा हमारी, देश हमारा ...साँस हमारी... देह हमारी... इन पर होगा अधिकार हमारा... आजादी... जिंदाबाद... जिंदाबाद... आजादी जिंदाबाद। उनकी साँसों में उबाल था, उनकी आँखों में क्रोध भरा था ...इन्कलाब जिंदाबाद...।

पुलिस के बड़े अधिकारी, उच्च प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस के सैकड़ों जवान दोनों ओर खड़े हैं, वे बीच से जुलूस की शक्ल में गुजरते जा रहे हैं - बीच बीच में आक्रोश में भर हुँकारते - नहीं सहेंगे... नहीं... सहेंगे... आजादी जिंदाबाद... जिंदाबाद... नारे लगाते, हाकिम हुक्काम बस उन्हें देखते खड़े हैं। पूरी फोर्स चुपचाप खडी है, हाकिम चुपचाप देखते हैं, ऊपर से आदेश है उन पर बेवजह बल प्रयोग न करें। उन्हें छेड़ें नहीं, जो भी करते है करने दें, उन्हें शांति से गुजरने दें, किसी भी हाल में हिंसा सरकार की तरफ से नहीं होनी चाहिए। वे चुपचाप देखते रह रहे हैं।

प्रधान चीखता था मीटिंग में - बुत सरीखे लोग भी विद्रोह कर रहे हैं? आपकी यही है कानून की व्यवस्था? ...सब नेता अपने अपने क्षेत्रों में जाइए, मिलिए सबसे, देखिए क्यों नाराज हैं लोग, आप लोग देखिए। - वह अधिकारियों की ओर मुड़ता है - जाइए समझाइए उन्हें, कड़ाई करिए, ये तेवर सरकार नहीं सहेगी।

शाम उतर गई है, रात घुप घुप गहराती जा रही है। उनके उद्घोष धीमे पड़ गए हैं, उनकी चाल कुछ सुस्त हो गई है, ...भीतर भूख भी सर उठा रही है। उन पर निगाह रखे हाकिमों की आँखों में चपलता है, उनके मातहतों में एक सतर्क चुप्पी भरी है। उच्च स्तरीय मीटिंग में तय हुआ है - रात के अँधेरे में सतर्कता से उन्हें हिरासत में लेना होगा, ...स्कूल की अस्थायी जेलों में उन्हें रखा जाएगा...। वहीं उनसे बड़े बड़े नेता मिलेंगे, प्रधान मिलेगें, मान मनौवल करनी होगी, उनमें फिर से विश्वास भरना होगा, पूरी सरकार उनके साथ खड़ी है, उन्हीं के लिए है।

जो निर्देश है उसी के अनुसार सब होना है - उसको पूरा करना है, उसी की तैयारी है। रात के आवरण में उन्हें हिरासत में लिया जाना है, यदि स्थित बिगड़ी तो उन्हें सजा रात में ही तुरंत देनी होगी, बिना किसी को खबर हुए प्रतिरोध को पूरी तरह मिटाना होगा। धीरे धीरे पुलिस के जवान, हाकिम घेरे में ले रहे हैं उन्हें, ...उन उनींदे बुत सरीखे लोगों को।

घेरा कसता जाएगा, धीरे धीरे और कसेगा - तब तक, जब तक वे निढाल न हो जाएँ, उनके विद्रोही तेवर ढीले न पड़ जाएँ। प्रधान आश्चर्यमिश्रित चिंता में पूछता है - ...ये बुत सरीखे लोग विद्रोह क्यों करते हैं? क्या मिलता है इन्हें...? सब चुपचाप सर झुकाए हुए खड़े हैं, किसी के पास कोई उत्तर नहीं है या वे कुछ कहना नहीं चाहते।


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हिंदी समय में नरेंद्र प्रताप सिंह की रचनाएँ